सड़क पार की खिड़कियाँ
डॉ. निधि अग्रवाल
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ज्यों दुनिया के अधिकतर देशों में सेकंड स्ट्रीट होती है, ज्यों हर हिल स्टेशन पर मॉल रोड, वैसे ही यह एक चमचमाती नई सड़क है जो लगभग हर गाँव, हर शहर, हर देश में उपस्थित है। अनजानी राहों पर चलने के लिए हौसला चाहिए। शुरू में झिझक हुई लेकिन अब इसका अजनबीपन मुझे सुहाता है। यह सड़क ज्यों एक अलग ही दुनिया में ले जाती है। जगमगाती हुई सुंदर, स्वप्निल, परीलोक सी! यूँ भी कह सकते हैं कि इस सड़क पर आ, आप पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद कर सकते हैं। हर शाम मैं यहाँ दूर तक निकल जाती हूँ। कोई मुझे जज नहीं करता, मैं भी किसी को नहीं पहचानती। यहाँ अनगिनत जगमगाते घरों में, असंख्य खिड़कियाँ हैं जो अपनी सुविधानुसार खुलती, बंद होती रहती हैं। कब कौन सी खिड़की खुलेगी... कौन सी बंद होगी इसका कोई नियम न होने पर भी पिछले कुछ महीनों की अपने वॉक में कुछ खिड़कियों का पैटर्न मैं समझ पाई हूँ। अब मैं उनके सामने से गुज़रती हूँ तो कई खिड़कियाँ मुस्करा देती हैं...एक औपचारिक मुस्कान जिसके कोई मायने नहीं होते हुए भी कई मायने होते हैं। कभी यह मुस्कान हम परिचय बढ़ाने के लिए देते हैं... कभी आगंतुक से अपना भय छुपाने... कभी उसकी औचक उपस्थिति से अचकचाकर ...तो कभी इस भाव के साथ कि चलो, अब आ ही गए हो तो हँस कर ही झेल लिया जाए।
इस सड़क की चकाचौंध और शोरगुल से निस्पृह गुज़र जाना किसी साधना जैसा लगता है... ज्यों एक आत्मिक संतुष्टि! अब इस सड़क से मेरा परिचय बढ़ता जा रहा है और मैं बंद आँखों से भी इस पर चलना सीख गई हूँ तब मैं यहाँ की चहल-पहल और अधिक स्पष्ट देख पा रही हूँ। आजकल पीले गुलाबों वाली खिड़की पर खड़ी महिला मुझे आत्मीय मुस्कान देती है। उसे देखते ही मेरा भी हाथ स्वतः ही अभिवादन में उठने लगा है। गुलमोहर के पेड़ के नीचे खुलने वाली खिड़की किसी गायक की है। एक वेदना है उसकी आवाज़ में। उसकी आवाज़ के साथ बहते मैं निर्वात में पहुँच जाती हूँ। जहाँ अंदर-बाहर का सब शोर शिथिल पड़ जाता है। मैं प्रायः इसी गुलमोहर तले सो जाती हूँ। उससे कोई संवाद कर मैं उसके एकांत में बाधा नहीं डालना चाहती।
आज एक नई खिड़की खुली है। लुभावनी मुस्कान लिए एक हमउम्र पुकारती है। मैं पलट कर देखती हूँ लेकिन पीछे कोई नहीं है, वह मुझे ही बुला रही है। मैं झिझकते हुए पास जाती हूँ। भूरी आँखों वाली लड़की मासूम अदा से अपने बाल झटकती है और कहती है-
'मैं आपको प्रतिदिन यहाँ से गुज़रते देखती हूँ।'
किसी का यूँ मेरी उपस्थिति का संज्ञान लेना हर्षित कम शंकित अधिक करता है। मैं उसे पढ़ने की कोशिश करती हूँ। एक निष्कलुष मुस्कान उसके चेहरे पर खिली है। उसके उजास की किरणें मेरे अँधेरों को स्पर्श कर रही हैं। मैं तेज कदम बढ़ा वहाँ से दूर जाना चाहती हूँ। आज मैं और आगे निकल आई हूँ। यहाँ अपेक्षाकृत शांति है। मकान हैं लेकिन अधिकतर खिड़कियाँ बन्द। कुछ जो खुली हैं वह मुझे नहीं देख रहे।। कोई चिंता नहीं। मैंने आँखे बंद कीं, एक गहरी साँस ली। कई चेहरे और घटनाएँ आँखों के सामने घूम रही हैं। सब चेहरे गड्डमड्ड हैं।
मेरे बॉस की शक्ल मेरे पापा से मिल रही है। मैं उसे देख मुस्कराती हूँ। वह भी मुस्कराता है और शैतान में बदल जाता है। लिफ्ट अचानक रुक गई है।
माँ का चेहरा निकुंज दीदी का हो गया है। कपड़े वह दादी जैसे पहने है। सिलाई मशीन पर झुकी वह हम सब के लिए दीवाली की नई पोशाकें सिल रही है। मैं पास जाती हूँ। कहती हूँ बहुत देर हुई अब सो जाओ। माँ उठती है। सिर पर लिया पल्लू सरकता है। मैं चीख पड़ती हूँ। माँ कहाँ गई? यह तो कंकाल है।
सफेद छींटदार फ्रॉक में मैं हूँ लेकिन शक्ल गौरी की। मैं भाग रही हूँ…. तनु और लीना भी…. हमें पकड़ने चिंकी हमारे पीछे भाग रही है। भागते-भागते हम पार्क के अलग-अलग कोनों में निकल गए हैं। बड़े लोग हमारे नाम पुकार रहे हैं। वापस लौटते हैं। लीना वापस नहीं लौटी। कहाँ गई? वह तनु के साथ थी लेकिन बस फव्वारे तक। वहाँ से वह अलग ओर भागी थी। पार्क के कोने में बने गार्ड रूम की दीवार के पीछे झाड़ियों में लीना सोई है। लेकिन क्यों? थकी थी तो घर क्यों नहीं गई। मैं पास जाती हूँ जगाने। लीना गौरी बन जाती है। मैं सहम कर आँखें खोल लेती हूँ। गौरी अकेली है घर पर। मुझे लौटना ही होगा। मैं दौड़ रही हूँ। मैं यह सब किसी से साझा नहीं कर सकती। मुझे सब अपने तक ही रखना होगा। बताने से कोई करेगा भी क्या? खिड़कियों पर काले पर्दे लगाने वाले कई हाथ स्वयं भी दागदार हैं। लौटकर गौरी के कमरे में झाँका। वह सोई है… अपनी गुड़िया को साथ सुलाए है। गुड़िया को हटा, मैं उस से सट कर सो जाती हूँ। वह अपनी नन्ही बाहों में मुझे भर लेती है।
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मुझे लगता है कुछ निर्णय लेना ज़रूरी है। उलझनें बढ़ती जा रही हैं। उपाय दिखाई नहीं देते। गौरी कोई बार्बी मूवी देख रही है। मेरे पास एक घण्टा तो आराम से है। बाहर आकर एक सिगरेट जलाई। पिछले चार महीने में यह सातवीं बार मैं सिगरेट छोड़ने में नाकामयाब हुई हूँ। मैं बुरी माँ नहीं हूँ… चाहती हूँ सिगरेट छोड़ना… लेकिन नहीं छोड़ पाती। नहीं छूटतीं कुछ चीज़ें जीवन में... हम स्वीकार क्यों नहीं लेते! सिगरेट के कुछ लम्बे कश खींच मैंने उसे फेंक दिया। बूट्स से उसे रगड़ते मैंने देखा कि सिगरेट बॉस जैसी दिखती है... धीरे धीरे मुझे लीलती हुई।
मैं फिर जगमगाती सड़क पर बढ़ चली। पीले गुलाबों वाली खिड़की मुझे पुकार रही है। मैं नहीं रुकती। नई खिड़की वाली लड़की मेरे पीछे-पीछे आई। मैंने गति और बढ़ा दी। मैं गुलमोहर के पीछे छुप गई। यह खिड़की आज बन्द क्यों है। खुलती क्यों नहीं। मैंने खिड़की खटखटा दी शायद। वह अचानक से खुल गई। मैं घबरा गई लेकिन कहती हूँ- आप कुछ गाते क्यों नहीं? वह अचरज से मुझे देखता है फिर गाने लगता है। उसकी स्वरलहरियों की थपक से मैं सो जाती हूँ। सुबह आँख खुली तो देखती हूँ वहाँ मैं अकेली नहीं हूँ। एक बड़ा समूह इसी छाँव तले सो रहा है। यह भीड़ मुझे पहले क्यों नहीं दिखी? यह कैसा मायाजाल है? मुझे लौटना है।
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आज मौसम सुहावना है। ऑफिस की भी छुट्टी। गौरी और मैं उसकी फ्रेंड कियारा के फार्म पर जन्मदिन की पार्टी में गए। खूबसूरत दिन जल्दी ढल जाया करते हैं। शाम भी आज जल्दी ही चली आई है। गौरी रिटर्न गिफ्ट देख रही है। उसने दो गेम भी जीते, वह खुश है। मुझे उस बच्चे का चेहरा भी याद है जो कोई भी गेम नहीं जीत पाया था। हमनें उत्सवों को भी प्रतियोगिता बना दिया है… जीत को खुशी का पर्याय। हर सुख की नींव में किसी का दुख दबा है। हर हँसी किसी के आँसुओं से तर। सांझ की लालिमा बढ़ रही है। कियारा और गौरी का गलबहियाँ करते, मुस्कराता हुआ फोटो मेरे सामने है। मुझे लगता है इस खुशनुमा मन से घूमना अच्छा रहेगा। मैं सड़क पर निकल चली हूँ। आज मेरी चाल धीमी है। मैं चारों ओर देख रही हूँ। किसी से नज़रें नहीं चुरा रही। मैंने जाना यह चोर बाज़ार है...कई बेशकीमती नगीने छुपाए। कभी समय हुआ तो तलाशने पर बहुत कुछ पाया जा सकता है। पीले गुलाब वाली खिड़की मेरे हाथ में फ़ोटो को देख चिल्लाई है-
'तुम्हारी बेटी?'
मैंने 'हाँ' में सिर हिलाया।
'तुम जैसी ही सुंदर है।'
अपनी प्रशंसा सुने मानो युग बीत गए हैं। मुझे अच्छा लगा। तभी कई खिड़कियाँ तेजी से खुली हैं। वे सब कह रहे हैं कि बच्चियाँ कितनी प्यारी हैं। दोनों को दुआएँ दे रहे हैं। दुआओं की मुझे ज़रूरत है। मैं सहेज ले रही हूँ। मैं उन्हें गँवा नहीं सकती। मैं नई खिड़कियों की पहचान याद रखने का प्रयास कर रही हूँ। अपने शुभचिंतकों को याद न रखना अनुचित होगा। आज मैं आगे नहीं जा पाई। यहीं ठहरी रह गई। मुझे अहसास हुआ कि इस सड़क पर अनुरागी लोगों के घर हैं। किसी अपरिचित पर इतना स्नेह कौन लुटाता है? मुझे अपने खोल से निकलना होगा। मैं घर लौट रही हूँ लेकिन कल पुनः आने की एक बेताबी है।
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डिवोर्स की पहली डेट थी। प्रसून नहीं आया। अगली डेट दो महीने बाद की मिली है। जब हम मिलना चाहते थे… शादी करना चाहते थे तब परिवार साथ नहीं था… कोर्ट ने हाथ बढ़ाया, विवाह कराया। अब हम अलग होना चाहते हैं, परिवार साथ है पर कोर्ट अड़चनें लगा रहा है। समर्थन की नदी कभी भी अपना रुख बदल लेती है। तान्या का फोन आया था वह कह रही थी-
"प्रसून गौरी की कस्टडी चाहता है।"
मैं हँस पड़ी। मैंने कहा-
"कोई चिंता नहीं। मैं किसी भी बच्ची को गौरी कह, उसके सामने खड़ा कर दूँगी। वह उसे ही गौरी मान लेगा। वह गौरी की शक्ल भी पहचानता है क्या?"
मैं देर तक हँसती रही।
वह बोली- "ऐसे क्यों हँसती हो? तुम्हारी चिंता हो रही है। अपना ध्यान रखो।"
फोन रख दिया था पर भय ने मुझ पर क़ब्ज़ा कर लिया। मैं गौरी को नहीं खो सकती। मैं प्रसून को खो सकती हूँ क्या? नहीं, प्रश्न यह है कि मैं प्रसून को पा सकती हूँ क्या? प्रसून को कभी मैंने पाया भी था क्या?
मैं लिख रही हूँ-
'हम दुख के नहीं सुखद स्मृतियों के सताए हुए हैं।'
खिड़की पर दस्तक हुई है। मैं आगे नहीं लिख पाती। अपने घर की इस खिड़की से मैं अनजान थी। कभी खोली ही नहीं। दस्तक बढ़ती जाती है। खिड़की खोलती हूँ-
'स्मृतियों को दंश न बनाओ। उन्हें प्रसून-सा महकने दो।'
'...और दंश प्रसून के ही दिए हों तब?'
'तब घास बन जाओ। सब पर छा जाओ,'
वे मुस्करा रहे हैं।
मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा।
'आपको मेरा पता किसने दिया।'
'आत्मा अपना पता स्वयं तलाश लेती है।'
मैं इस कथन का अर्थ नहीं जानती पर अनुभूति सुखद है।
'शुभरात्रि। keep smiling …. मुस्कान सौंदर्य निखारती है।'
मैं यह खिड़की खुली रखना चाहती हूँ। यहाँ से आती हवा में एक ख़ुशबू है।
सुबह किसी आवाज़ से नींद उचटी है। मैंने समय देखा। अभी छह ही बजे हैं। गौरी निश्चिन्त सोई है मेरे हाथ पर। भ्रम हुआ होगा। मैं आँखे मूँद लेती हूँ लेकिन फिर कोई आवाज़ है। मैं उठती हूँ। रात को खुली छोड़ी खिड़की के पल्ले हवा से हिल रहे हैं। मैं उनींदी आँखों से चली आती हूँ खिड़की पर। यहाँ से सनराइज़ दिखता है।
'तुम मुस्करा दो तो सुबह खिले
जो अटक गई थी तुम्हारे जाने से
जो लौट आओ तो
ठहरी हुई वह साँस मिले'
'गुड मॉर्निंग', मैं कहती हूँ। हालाँकि मेरे लिए यह रात ही है।
'अहा, एक कली खिली।'
मैं क्या कहूँ? बस एक मौन।
'तुम्हारे साथ रहकर
अकसर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।'
(सर्वेश्वरदयाल)
मैं खिड़की से आती हवा की गिरफ़्त में हूँ।
'आप कवि हैं?', पूछे बिना नहीं रह पाती।
'कुछ भले मानस ऐसा मानते हैं,'
वे मुस्कराते हैं। आगे कहते हैं-
'मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा ज़रूर'
(सर्वेश्वरदयाल)
क्या वे मेरा मन पढ़ रहे हैं?
'आप सुंदर लिखते हैं' ,मैं कहती हूँ।
'सर्वेश्वरदयाल को जानती हो?'
मैं अपने आस-पास सभी चेहरों को याद करते कहती हूँ - 'नहीं'
'पढ़ना इन्हें।'
वे स्नेह छोड़ चले गए हैं। मैं दूसरी खिड़की खोल, 'सर्वेश्वरदयाल' तलाश रही हूँ।
गौरी के लिए उसके पसंदीदा पेनकेक्स बनाकर उसे जगाती हूँ। वह चहकी- 'मम्मी आप कितना प्यारा गाती हो', तब अहसास हुआ कि अरसे बाद मैं गुनगुना रही हूँ। यह गुनगुनाहट पूरे दिन तारी रही। पिछले दिनों चार जॉब्स के लिए अप्लाई किया था एक से इंटरव्यू की कॉल आई है। मेरी कैरियर कंसलटेंट का कहना है कि इंटरव्यू बस फॉर्मेलिटी है। नई जॉब के लिए शहर बदलना होगा और केस इस शहर में चलेगा। मुक्ति का मार्ग सरल नहीं होता पर आज मैं इन सब के बारे में नहीं सोच रही। मैं आज को जीना चाहती हूँ।